Friday, May 17, 2019

अंको की सुनामी - बोर्ड की मेहरवानी



अंको की सुनामी – मुफ्त की रबड़ी

विगत सात दिनों में सीबीएसई ने कक्षा 12 और 10 के रिजल्ट निकालें. यूँ तो रिजल्ट हर बार आता है पर चौकाने वाली बात ये है की कक्षा 12 वीं की टॉपर को 500 में 499 अंक हासिल हुए. कक्षा 10 का हाल भी यही रहा जिसमे 13 बच्चों ने 499 अंक लाकर इतिहास रच दिया. अब ICSE बोर्ड की कहानी भी सुने जहाँ कक्षा 12 के एक बच्चे ने 500 में से 500 अंक लाकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है. अब सवाल ये है की बोर्ड के अंक देने की प्रणाली क्या वास्तव में इतना सक्षम है कि छात्रों के भाषायी ज्ञान, वाक्य विन्यास और उसके लिखने के प्रभावी अंदाज से मंत्रमुग्ध होकर ऐसे अंक देने में संकोच नही करती जहाँ तक पहुचना शायद संभव ही न हो. दूसरा पहलू ये है की परीक्षा के प्रश्नों का स्तर क्या इतना निम्न है कि हिंदी , अंग्रेजी जैसी भाषा में 100 में से 100 अंक देने में किसी को कोई गुरेज नही है. तीसरा पहलू ये भी हो सकता हो कि छात्रों के पास कोई जादुई चिराग हाथ लग गयी हो और जिसकी मदद से वे ऐसा अंक लाने में सक्षम हों.  
मैंने अपने कई मित्रों , शिक्षाविदों से इस बारे में बात की और कुछ को मेरा प्रश्न उचित और कुछेक को अनुचित लगा. कुछेक का मत ये था की आजकल छात्रों के पास पुस्तक के अलावा हर वो साधन मौजूद है जो उनके इस प्रकार के अंक लाने में उनकी मदद कर पाता है. अच्छे ट्यूशन , अच्छी पुस्तकों और पढाई के आधुनिक तकनीक से ऐसा संभव है. ये कुछ हद तक सही भी है पर इसका मतलब ये कतई नही है की आप 500 में 500 अंक लाकर पुरोधा बन जाएँ.
चिंता की बात ये नही है की किसके कितने अंक आये पर अब छात्रों के ज्ञान को पैमाना मानने की जगह हम छात्रों के अंक को उसके अच्छे और बुरे होने का मापदंड समझने लगे है. यदि किसी छात्र के 95 अंक हों तो घर में ऐसा मातम फैला होता है कि 100 से कम कुछ मंजूर ही नहीं है. छात्रों के 100 अंको की संख्या विद्यालय और उसमे पढ़ा रहे शिक्षकों की गुणवत्ता बताता है. माँ- बाप भी दिन रात लगे रहते है की उनके पुत्र के 99 अगर 100 नही तो आने ही चाहिए और इस गला काट प्रतिस्पर्धा में ज्ञान तो पीछे छुट गया. अंक सब चाहते है ज्ञान की किसे पड़ी है. 10 वर्षों के प्रश्नपत्र उठा कर देखिये क्या किसी बोर्ड ने कोई ऐसा प्रश्न पूछने का परीक्षा में साहस किया है जो छात्रों के ज्ञान की कसौटी को परख सके. शायद नही. यदि पुस्तक में राम ने कुछ सामान ख़रीदा है लिखा है तो रहीम लिखा  प्रश्न परीक्षा में नही पूछा जा रहा है. प्रत्येक अध्याय के महत्वपूर्ण प्रश्नों का लिस्ट कोचिंग वाले पकड़ा देते है और पुरे वर्ष उन्हें रटवाने में लगे रहते हैं. मतलब साफ है बोर्ड रट्टू तोता पैदा कर अपना पीठ थपथपाने को एक कार्य समझती है और माँ- बाप भी इसी रेस में है कि उनके बेटे को 98 या 99 से कम अंक ना आ जाये.
ज्ञान की कसौटी में अगर इन छात्रों को परखे तो कई 99 वाले आपको 70 वाले भी नहीं दिखेंगे तो इन तमाशों के पीछे मुख्य भूमिका किसकी है?
मैं इसके लिए किसी एक को दोष नही दे सकता. भारतीय शिक्षा प्रणाली ही पूरी तरह से ऐसी बना दी गयी है कि लोगों के सोच को उभारने का कोई मौका ही नहीं मिल रहा. शिक्षा में जो नित नए प्रयोग हो रहे है उसका अर्थ सिर्फ छात्रों के अंको का स्तर बढ़ाने के लिए है चाहे इसके लिए सिलेबस से कई महत्वपूर्ण अध्यायों को हटाना ही क्यों ना पड़े. प्रश्नों का स्तर ऐसा रखना है कि अगर कोई छात्र रटने में  तेज हो तो वो रट ले और अंक ले आये.
सरकार भी शायद इसमें सुधार नही चाहती क्योंकि सबको अपनी जो पड़ी है. किस शासनकाल में छात्रों के स्तर कितना रहा ये सरकार के लिए सोचनीय प्रश्न है. हाल ही में दिल्ली के कक्षा 9 में गणित विषय में 2 प्रश्न गलत छप गए जिसे परीक्षा के दौरान सुधार दिया गया पर रिजल्ट के 2 दिन पहले प्रत्येक छात्रों को 7 अंक दे दिए गए की प्रश्नपत्र में पूछे गए प्रश्न की बजह से छात्रों का नुकसान ना हो जाये. यही हाल इस बार कक्षा 12 में लीनियर प्रोग्रामिंग से सम्बंधित प्रश्न को लेकर रहा जहाँ प्रश्न थोडा छात्रों को सोचने के लिए मजबूर कर रहा था और छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के विरोध के चलते 6 अंक की मुफ्त की राबड़ी सब ने खा ली. यदि प्रश्न थोड़े से लिक से हटकर हो जाये तो हंगामा इस कदर होता है कि संसद में भी प्रश्न उठ खड़े होते है की बोर्ड छात्रों के साथ धोखा कर रही है और फिर छात्रो को मुफ्त के अंक.
परीक्षक भी आजकल ऐसे है की वो भरपूर अंक देकर खुद की पीठ थपथपाने में अपनी जीत समझते है कारण साफ है कम अंक देने पर उनसे सवाल जबाब पूछा जायेगा. आलम ये है की अगर किसी शिक्षक के द्वारा पढाये जा रहे  कक्षा का रिजल्ट पिछले वर्ष की तुलना में कम हो तो उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया जाता है. तो खेल ये है की स्कुलो के मैनेजमेंट को अपने स्कुल के प्रचार के लिए अंक चाहिए, माँ- बाप को समाजिक प्रतिष्ठा के लिए अंक चाहिए, नेताओं को अपने पिछले नेताओं से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए अंक चाहिए पर ज्ञान जो छात्रों के भविष्य के लिए उपयोगी है किसी को नहीं चाहिए.
यदि हिंदी में 100, अंग्रेजी में 100 अंक मिल रहे है तो क्या जांचने वाले शिक्षक या अंक प्राप्त छात्रों का स्तर शेक्सपियर या तुलसीदास जैसा है. क्या हजारों की संख्या में विज्ञान और गणित में 100 अंक लाने वाले छात्रों के वावजूद हम एक रमण, या रामानुजन तक क्यों नही पैदा कर पा रहें है?
सरकार , समाज , शिक्षक , अभिभावक सब को संघटित होकर इस बंदरबांट के खिलाप आवाज उठानी चाहिए जिससे ज्ञान का प्रकाश फैलाया जा सके नहीं तो हम सिर्फ ये गाते रहेंगे की – जब जीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई
और अगर सच में बोर्ड स्वायत्त संस्था है तो परीक्षा का अर्थ दुबारा खुद समझे और फिर परीक्षा लेने जैसा नेक कार्य करें अन्यथा अंको के इस सुनामी में छात्रों का भविष्य लील जायेगा
डॉ राजेश कुमार ठाकुर


गणित और रामायण

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