अंको की गलाकाट प्रतियोगिता में
चरमराता शिक्षा जगत
नालंदा , तक्षशिला , विक्रमशिला जैसे शिक्षण संस्थानों के लिए विख्यात
भारतवर्ष , जहाँ देश- विदेश से पढने के लिए विद्वान आते थे आज दुःख की बात
ये है की विश्व की 100 सर्वश्रेष्ठ शैक्षिक संस्थानों में भारत के संस्थान नजर नही
आते. गणित,
विज्ञान,
दर्शन, खगोल इत्यादि विषयों पर विश्व में तूती बोलने वाले इस देश में आज शिक्षा का
उद्देश्य ज्ञान से अधिक धनोपार्जन हो गया है. शिक्षा का वास्तविक अर्थ आज इस तरह
अपना पहचान खोते जा रहा है की आज शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के अनुसार बदलता जा
रहा है. आज सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा बन गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का लक्ष्य
ही असमंजस में है. कोई इंजीनियरिंग कर इंजीनियर बन संतुष्ट नहीं, वो फिर एमबीए
करना चाहता है और बाद में फिर आईएएस बन जाता है. महात्मा गाँधी ने बिना लक्ष्य की
शिक्षा को बिना पतवार का जहाज कह दिया और आज शायद शिक्षा एक मांझी के तलाश में हैं
जो नैया पार लगा इसके पुजारी को निश्चित जगह पंहुचा सके. आज शिक्षा को एक ब्रांड
के रूप में पेश किया जाता है. कभी गुरुकुल से निकले छात्र या टूटी फूटी इमारतों में शिक्षा को एक धर्म की तरह पढाया
जाता था आज इसे आलीशान इमारतों में ब्रांडिंग की जाती है. जिसप्रकार जेनरिक दवाई
सस्ती होते हुए भी ब्रांडिंग नही होने के कारण प्रभावशाली नही दिखती वैसे ही
स्कूलों में छात्रों के 99 या 100 अंक आये बिना स्कुल या विषय विशेषज्ञ की
ब्रांडिंग नही होती. और शायद यही वजह है इस अंको की आपाधापी में शिक्षा ज्ञान
अर्जन की जगह व्यवसाय बन गया है.
मसी कागद छुयो नही , कलम गयो नही हाथ जैसी वाणी से गहरी छाप छोड़ने
वाले कबीरदास जी ने तो अपनी अनुभव को श्रेष्ठ बताया, अनुभव से सीखी चीजों का हमारे
मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव होता है. हम आज हैंड्स ओन पर बाते तो करते है पर अमल नही
करते .शिक्षा में नवाचार के प्रयोग की बातें हो या प्रैक्टिकल अप्रोच की ये बातें
सुनने में लुभावनी लगती है पर इसका असर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर नही दिखता. आज भी
हमारी शिक्षा कोई नया प्रयोग नही कर पा रही है. प्रत्येक वर्ष लाखों इंजीनियरिंग
पास छात्र अबतक कोई नवीनतम खोजकर गणित, विज्ञान जैसे विषयों में फील्ड्स मेडल या नावेल
पुरस्कार हाशिल नही कर पा रहा है , यह विचारणीय प्रश्न है. विज्ञान, गणित, स्थापत्य,
खगोल, कला जैसे विषयों में प्राचीन समय में हमारे विद्वानों ने काफी उपलब्धियां
हाशिल की पर हमने उन्हें नजरअंदाज कर दिया क्योंकि हमे अपने पर नही दूसरों की
बातों से सरोकार है.
आज शिक्षा का उद्देश्य मोटी तनख्वाह हाशिल करना है ना की विज्ञान और
गणित में शोध को बढ़ावा देना, हमारे लिए स्कूल, विश्वविधालय एक ऐसा मशीन है
जहाँ हम छात्रों को प्रोसेस कर उन्हें मशीन बनना सीखा रहे है और इस उहापोह में
मानवीय संवेदना और सामाजिक ताना- बाना की बली चढ़ती जा रही है. आज पढाई का उद्देश्य
हमे संवेदनहीन मनुष्य रूपी मशीन बनाना है जिसे हमे पैदाइश धावक बनाना है. ऐसा धावक
जिसे दौड़ना है हर समय लक्ष्यहीन 100% अंक की ओर. इस दौड़ में विद्यार्थी के साथ
उनके माता- पिता, स्कुल
, कोचिंग संस्था सब इसी 100 के लक्ष्य का पीछा कर दौड़ रहे हैं. इस दौड़ में हमारे
बोर्ड का अहम योगदान है जिनके द्वारा पूछे प्रश्न ही कुछ ऐसे होते है जिसमे मानसिक
विकास या क्रियाशीलता पैदा करना उनका उद्देश्य नही होता. आज 95% अंक लाने वाले
छात्र भी परेशान हैं की उन्हें मनचाहा कॉलेज में एडमिशन नही मिलेगा और पूरा परिवार
उस छात्र को कोसने लगता है. हैरानी की बात तब है जब हिंदी और अंग्रेजी जैसे भाषा
में 100 अंक लाने वाले छात्र ना अच्छी हिंदी और ना अच्छी अंग्रेजी बोल पाते है और
उनके भाषायी ज्ञान का स्तर उस लायक नही है. यही बात गणित, विज्ञान और
अन्य विषयों के साथ है. सरकारें अपनी पीठ थपथपा सकती है , बोर्ड अच्छे परिणाम देने
के लिए खुद अपनी पीठ भी थपथपा ले पर इन सब में सबसे नुकसान तो छात्र का है.
जे. बि. एस्. हाल्डेन् ने भारतीय
गणितज्ञ के बारे में लिखा- आज अगर रामानुजन भारत में होते तो उन्हें किसी गांव के छोटे
से कॉलेज में कोई लेक्चरर की नौकरी भी नही मिलती या यूपीएससी द्वारा आयोजित किसी
परीक्षा में उन्हें बैठने का अवसर ही नही मिलता क्योंकि उनके पास कोई आधिकारिक
डिग्री नही थी पर इंग्लैंड में पहचान और नाम मिलने के कारण उन्हें भारत लौटने पर
काफी सम्मान मिला.
शायद ये बताने के लिए काफी है की हमारी शिक्षा में एक बदलाव की जरूरत
है. यहाँ आपकी रूचि नही वल्कि पहले से प्रस्तावित ढांचा आपको पार करने के बाद ही
कोई पहचान मिलेगी. आज भारतीय मूल के गणितज्ञ मंजुल भार्गव, अक्षय वेंकटेश को
फील्ड्स मेडल मिलने पर उन्हें भारत में सम्मान मिलता है , मंजुल भार्गव को एनसीएफ
का सदस्य बना दिया जाता है,
अमर्त्य सेन को पद्म पुरस्कार नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद मिलता है पर यदि हम
भारतीय शिक्षा प्रणाली को इस कदर सुधारें जहाँ योग्यता के लिए किसी डिग्री की
आवश्यकता ना हो केवल रिसर्च और इनोवेशन पर बल हो तो देश फिर से विश्व गुरु बनेगा.
आज वैज्ञानिक खोज वाले कई व्यक्ति हैं जिसने अपने अनुभव से एक मिशाल कायम किया
हमें उन्हें सम्मानित करने की आवश्यकता है ना कि किसी विश्वविधालय से पास ऐसे
इंजिनियर की जिन्होंने कोई अनुसन्धान ही नही किया. क्यों ना हमारे विश्वविधालय या
बोर्ड अंक की जगह ज्ञान को शिक्षा का आधार बनाती है ?
गणित, इतिहास और मनोविज्ञान मेरा पसंदीदा विषय था पर उस समय हमारे
कॉलेज में सिर्फ साइंस और आर्ट्स थे और ऐसा कोई कॉम्बिनेशन ही नहीं था मजबूरन मुझे
ना चाहते हुए भौतिकी और रसायन पढना पड़ा. भारत में शिक्षा का चरित्र सामाजिक परिवेश
और माँ- बाप तय करते हैं. आपको क्या पढना है क्यों पढना है वो तय आप नही कर सकते.
आज विदेशों में आप गणित के साथ संगीत और ड्रामा जैसे विषय भी लेकर पढाई कर सकते
हैं. आज 10 साल के एक बेहतरीन छात्र को 14 वर्ष पुरे नही होने की वजह से दसवी की
परीक्षा में बैठने के लिए कोर्ट की शरण में जाना पड़ता है. एक 12 वी पास गणित के
शोधार्थी जिसने उस प्राध्यापक से अधिक शोध किया हो जो कॉलेज में प्रोफेसर है को
विश्वविधालय प्रोफेसर नही बनाता क्योंकि उसके पास डिग्री नहीं है, आज हजारों को
संख्या में कट पेस्ट वाले पीएचडी धारक को एक सच्चे शोधार्थी से अधिक तरजीह क्यों?
हमे वास्तव में गला काट अंको के अंधे दौड़ की जगह ज्ञान और शोध को महत्व देंना
पड़ेगा तभी सच्चे मायने में शिक्षा का अर्थ सार्थक होगा. अंक आवश्यक तो हैं पर 100
में से 100 लाने की होड़ में हमने जो मशीनी शिक्षा का ढांचा तैयार किया है जिसमे
ज्ञान के नाम पर 10 सालों के प्रश्नों की विवेचना, बने बनाये पैटर्न जो हमारी समझ
विकसित ना कर पाए हमे 100% शिक्षित देश तो बना सकते हैं पर हमारा योगदान एक
सामाजिक तौर पर शून्य ही रहेगा. आज शिक्षा में बड़ी बड़ी समूह निवेश कर रहीं है
जिन्हें अपनी ब्रांडिंग के लिए अंक पैदा करने वाले मॉडल चाहिए यही भारतीय शिक्षा
की बिडम्बना है. आज परीक्षा में एक घुमावदार प्रश्न अखबारों और न्यूज़ चैनल में जब
बहस का मुद्दा बन जाता है तो ज्ञान या तार्किक सोच कैसे विकसित होगा ये सोचना
पड़ेगा.
आइये मिलकर ऐसा वातावरण बनाएं जहाँ छात्र चरित्र निर्माण के लिए पढ़े, ज्ञान अर्जन
के लिए पढ़े,
शोधपरख ज्ञान अर्जन के लिए पढ़े ना की गलाकाट दौड़ में शामिल एक मशीन बनने के लिए .
आज मैकाले की शिक्षा प्रणाली जिसने हमे मानसिक रूप से अपंग बना दिया है की जगह
ज्ञान देने वाली ऐसी शिक्षा चाहिए जो सामाजिक निर्माण में सहायक हो , ज्ञान
विज्ञान पर आधारित हो, चारित्रिक विकास कर देशहित में काम करने के लिए प्रेरित
करें ना कि हमे मशीन बना दे जिसपर ब्रांडिंग हो. सरकार को ऐसी पालिसी लेकर आने की
जरूरत है जिसमे अंक की जगह एप्लीकेशन शिक्षा का उद्देश्य हो, जो हमे रटने
वाला तोता नही तार्किक बनाये. सामाजिक वातावरण ऐसा हो जिसमे कम अंक लाने वाला भी
अपनी काबिलियत के बल पर ऊँची उडान ले सके. बोर्ड भी एक ही तरह के प्रश्न पूछकर अंक
बाटने वाली संस्था ना बने बल्कि ऐसा योग्य छात्र चुनने में मदद करे जो स्किल
आधारित हो. पढाई के लिए डिग्री के साथ आपकी तार्किक और कल्पनाशीलता का महत्व हो.
अगर सरकार, बोर्ड, माता पिता और
सामाजिक परिस्थितियाँ अनुकूल बना दिए जाएँ तो भारतीय छात्र अपने ज्ञान और कौशल को
अपनाएंगे और अंको के मायाजाल में उलझकर कुम्हलाएँगे नही.
डॉ राजेश कुमार ठाकुर
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