लेकिन आज गणित जगत में ऐसा कोई नहीं होगा जो इस महान व्यक्तित्व के संघर्ष गाथा से प्रभावित ना हुआ हो। 10 वर्ष की अल्प अवस्था में स्नातक तक के सभी गणितीय सवालों को स्वयं हल करने वाले, नामगिरी देवी के अनन्य भक्त ने अपने लिए जो स्थान बनाया वो अकल्पनीय है।
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संघर्ष से भरा जीवन
रामानुजन की प्रासंगिकता आज कितनी है ये एक विचारणीय प्रश्न है जिसे समझने से पूर्व मैं भारत के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु की पुस्तक में रामानुजन को लेकर उधृत एक कथन से करता हूँ, “रामानुजन का संक्षिप्त जीवन और मृत्यु उस समय भारत की सामाजिक परिस्थितियों का एक संकेत है , करोड़ों की जनसंख्या वाले इस देश में कितनों को शिक्षा का अवसर मिल पाता है, कितने भुखमरी के कगार पर हैं – यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हों और जीवन सब के लिए अपने द्वार खोल सबको खाना , समान शिक्षा और जीवन में बढ़ने के समान अवसर प्रदान करे तो इनमे से कितने ही महान वैज्ञानिक, शिक्षाशास्त्री, इंजीनियर, उद्योगपति, लेखक , कलाकार बनकर नए भारत का निर्माण करने में देश की मदद करेंगे।
गणित मे रामानुजन को वही सम्मान प्राप्त है जो भौतिकी के क्षेत्र में आइंस्टीन और न्यूटन को प्राप्त है पर रामानुजन की ओर से प्रशासन ,बौद्धिक समाज का आँखे फेर लेना ; उनके संघर्ष और उपेक्षा का दंश देश की प्रगति के लिए स्वस्थ संकेत नहीं है। स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी क्या हम सबको समान शिक्षा, भोजन और समान अवसर दे पायें हैं? शायद आज भी कितने रामानुजन टकटकी लगाये सरकार की तरफ उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं।
एक साड़ी के दुकान में काम करने वाले गरीब पिता का ये होनहार पुत्र जिनके परिवार को दो वक्त खाना भी ना मिलता हो अगर वो विपरीत परिस्थितियों का सामना कर एक दीप्तमान तारा बन आसमान में सुशोभित हो जाये तो यह निश्चय ही उनकी खुद की लगन और दृढ इच्छाशक्ति का ही परिणाम है।
11वीं में फेल होने के बावजूद नहीं मानी हार
26 अप्रैल 1920 को स्वर्ग सिधारे श्रीनिवास रामानुजन की पुण्य आत्मा आज हमें, देश की सरकारों और व्यवस्था से चीख-चीखकर एक प्रश्न अवश्य पूछ रही है जो 1987 में रामानुजन जन्म शताब्दी समारोह में एक भाषण के दौरान एस रामाशेषन ने पूछा, “भारत में आज कितने रजिस्ट्रार, कितने उपकुलपति आज रामानुजन जैसे असफल ग्यारहवीं फेल शोधार्थी को लाख रूपये प्रतिमाह की छात्रवृति (रामानुजन को उस समय 75रु। की छात्रवृत्ति मिलती थी जो आज के 1 लाख के बराबर है) प्रदान करने का साहस कर सकते हैं या ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय जैसा साहस जो रामानुजन को बी. ए. (आज के पी. एच. डी.) जैसी डिग्री प्रदान कर गौरवान्वित महसूस कर सकती हैं।”
भारत की आजादी के सात दशक बाद हम अंग्रेजी सत्ता को देश की प्रगति के लिए रामानुजन जैसी प्रतिभा को नहीं खोज पाने के लिए दोष नहीं दे सकते। हमें खुद से यह प्रश्न करना आवश्यक है कि क्या रामानुजन के प्रमेय को समझने में 1913 में भारतीय गणितज्ञ असफल रहे कि उन्हें इंग्लैंड के गणितज्ञ प्रोफेसर हार्डी की राह देखनी पड़ी, रामानुजन के शोध को आख़िर विदेशों में ही ख्याति क्यों मिली, क्यों रामानुजन जैसी प्रतिभा को पोर्ट पर 30 रूपये महीने की नौकरी के लिए दर-बदर ठोकर खाने की आवश्यकता पड़ती है?
क्यों उनकी डायरी के लगभग 4000 प्रमेय को सिद्ध करने के लिए उनके मरणोपरांत भी जॉर्ज एंड्रूज और ब्रूस बर्न जैसे अमेरिकी गणितज्ञ की ओर टकटकी लगाने की जरूरत पड़ती है, क्यों रामानुजन के अंतिम दिनों के शोध – मोक थीटा फंक्शन को सही ठहराने के लिए प्रोफ़ेसर केन ओनो की 2012 तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह अवश्य ही विचारणीय प्रश्न है।
गणितज्ञ के प्रति उदासीनता का सवाल
5वीं सदी में आर्यभट्ट से लेकर 13वीं सदी में माधव तक गणित के गौरवमयी इतिहास के बाद के 6 सदियों तक रिक्तता को भरने का श्रेय रामानुजन को मिला। पर उनकी कृति को जो सम्मान मिलना आवश्यक है उसके लिए जब उनकी पत्नी जानकीअम्मल को 50 वर्ष तक अपने पति की कांस्य प्रतिमा का जब इंतजार करना पड़े और अमेरिकी गणितज्ञ के सामूहिक प्रयास से कांस्य प्रतिमा उन्हें उपहार में दिया जाए तो सरकार की उदासीनता दिखती है जो एक गणितज्ञ को समुचित सम्मान नहीं दे पा रही है।
रामानुजन को सच्ची श्रद्धांजलि हम सिर्फ डाक टिकट जारी करके नहीं दे सकते जैसा 1987 या 2012 में हमने किया बल्कि रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लन्दन के पहले फेलो की सच्ची सेवा हम प्रतिभाओं की खोज और उनको निखारने का कार्य निरंतर करके ही कर सकते हैं।
रामानुजन की कहानी सिस्टम की उपेक्षा, गरीबी और मुफलिसी में जी रहे लाखों लोगों की कहानी है जिसे आज हार्डी जैसे कोच, साथी और हितैषी की आवश्यकता है।
प्रो एंड्रूज लिखते हैं मैं आश्चर्यचकित हूँ कि रामानुजन ने बिना किसी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से गणित की जो पराकाष्ठा पाई वो इनकी मदद से क्या क्या कमाल दिखा पाते।
इंग्लैंड में रामानुजन के प्रशिक्षक रहे लिटिलवुड तो एक कदम आगे जाकर लिखते है – रामानुजन 100 या 150 वर्ष पूर्व कितने महान होते? क्या होता अगर यूलर आज रामानुजन के संपर्क में होते।
रामानुजन को स्वयंभू कहने वाले महान गणितज्ञ प्रो हार्डी लिखते है की मैं गणितीय प्रतिभा के लिए खुद को 25, लिटिलवुड को 30, हिल्बर्ट को 80 और रामानुजन को 100 अंक देना चाहूँगा।
रामानुजन की ‘शोधप्रवृत्ति’
रामानुजन इसलिए महान नही हैं की उन्होंने विपरीत परिस्थितियों से लोहा लेकर अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाया जो विरले लोगों को ही प्राप्त होता है, हाइपरजियोमेट्रिक, सतत श्रेणी, मोकथीटा फंक्शन ,पार्टीशन नम्बर पर अपने समय से आगे जाकर खोज की। उनके जीवन का संदर्भ देकर यह कह सकते हैं कि शिक्षा और शोध के लिए परम्परागत डिग्री नहीं बल्कि एक शोधप्रवृति की आवश्यकता है, शोध ही वैज्ञानिकता को जीवंत करेगा।
“हमें समूचे भारत में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए आज लाखों रामानुजन की जरूरत है जो हार्डी जैसे गुरु की तलाश में असमय दम तोड़ रहे हैं। रामानुजन का वास्तविक सम्मान तो यही होगा कि कोई भी प्रतिभा गुमनाम ना रहे इसको हम अपनी साझी जिम्मेदारी समझें।”
आज नेहरु के 1946 के कथन को सच करने का समय है जिससे भारत ज्ञान विज्ञान के सभी प्रतिमानों को सम्मान मिल सके। यही सच्चे अर्थों में 26 अप्रेल 1920 को परलोक गये इस महामानव के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 1920 में असामयिक मृत्यु की गोद में सोये इस कालजयी रामानुजन को मृत्यु के बाद पंडितों ने तो मुखाग्नि देने से केवल इसलिए इंकार कर दिया था क्योंकि समुद्री यात्रा से वापस लौटे रामानुजन ने प्रायश्चित के लिए रामेश्वरम की यात्रा नहीं की। आज भी सामाजिक विभेद बिखरा पड़ा है जिसे पाटने की जरूरत है, शोधपरक शिक्षा , वैज्ञानिक चिन्तन और समान शिक्षा देकर ही हम सच्चे मायने में देश की सेवा कर विश्वगुरु बन पाएंगे।
(लेखक परिचयः डॉ राजेश कुमार ठाकुर वर्तमान में राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय , रोहिणी , सेक्टर 16 दिल्ली -110089 में अध्यापक हैं। 60 पुस्तकें , 500 गणितीय लेख, 400 से अधिक ब्लॉग , 10 रिसर्च पेपर प्रकाशित। 300 से अधिक विद्यालयों में शिक्षक प्रशिक्षण का अनुभव।)
यह लेख 26 अप्रेल 2020 को दो अलग अलग ऑनलाइन पोर्टल पर छपा
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डॉ राजेश कुमार ठाकुर
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