शून्य
भारतीय परिकल्पना है यह तो सबको पता है पर भारतियों ने शून्य को जिस स्थानीय मान
के रूप में लिखने की कला सीखी और जिसने पुरे विश्व को भारत का मुरीद बना दिया उस
शून्य अर्थात कुछ नहीं वाले चिन्ह को माया सभ्यता में भी 350 ईस्वी में विकसित कर
लेने का दावा किया जाता रहा है. माया सभ्यता में कैलेंडर का जो प्रारूप देखने को
मिलता है उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि माया सभ्यता में लोग सिर्फ तीन
चिन्हों के उपयोग से संख्या लिखने में समर्थ थे. ये चिन्ह – एक बिंदु , एक रेखा और
एक अर्धखुला आवरण जो शून्य या रिक्तता का प्रतीक था. इन्हीं तीन संकेतो से वो
संख्या लिख सकते थे. प्राचीन बेबीलोनियन सभ्यता में संख्या को लिखने का आधार 60 था
और आज पुरे विश्व में संख्या को लिखने के लिए आधार 10 का प्रयोग होता रहा है
परन्तु माया सभ्यता में संख्या का आधार 20 था. इन संकेतों की सबसे बड़ी खासियत ये
थी कि एक अनपढ़ व्यक्ति भी इन संकेतों की मदद से लिखी संख्या को समझने की योग्यता
रखता था और अपने व्यापारिक गतिविधियों में अपनी क्षमता के हिसाब से इनका इस्तेमाल
सुगमता से करने में प्रवीण था.
अब
अगर बात करें शून्य के लिए प्रयोग किये गये आधे- खुले आँख जैसी आकृति की तो यह
आकृति को अंतिम पहचान मिलने के पूर्व कई पड़ाव पार करने पड़े. जिसके बाद शून्य या
रिक्तता के लिए इस चिन्ह को पहचान मिली.
माया सभ्यता में शून्य के चिन्हों की यात्रा
वक्षाली पोथी
भारत
में शून्य को पहचान यदि संकेत के रूप में कहें तो बक्षाली पोथी में मिली जिसमे
शून्य के लिए एक मोटे बिंदु का प्रयोग किया गया था. अब सवाल उठता है की बक्षाली
पोथी कितनी पुरानी है.
2017
में बक्षाली पोथी के तीन पत्ते को कार्बन डेटिंग पद्धति से जांच करने पर पाया गया
कि ये पत्ते 224–383, 680–779, तथा
885–993 इसवी में लिखे गये हैं और इस
आधार पर दक्षिणी एशिया में शून्य का चिन्ह प्रयोग मिलने वाली सबसे पुरानी पुस्तक
के रूप में बक्षाली पोथी को स्वीकार किया गया.
भारत
में शून्य की यात्रा में नया पड़ाव तब आया जब ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक में शून्य
से सम्बंधित नियम का प्रतिपादन छठी शताब्दी में किया परन्तु शून्य के लिए वर्तमान
में जिस चिन्ह का प्रयोग किया जा रहा है वो चिन्ह ग्रीक देवता ओमिक्रोन के आकार से
लिया गया या नहीं इसपर कुछ कहना तो ठीक नहीं जान पड़ता परन्तु भारत में मध्यप्रदेश
के ग्वालियर किले में स्थित चतुर्भुज मन्दिर में स्थित राजा जय वर्धन के समय की
पट्टिका जिसपर लिखा है – राजा जयवर्धन 187 हाथ लम्बे और 270 हाथ चौड़े फूल के बगीचे से प्रतिदिन इतना फूल तोड़ते
थे की उससे बने 50 मालाओं से वो मन्दिर में ईश्वर की पूजा कर सके. यहाँ 270 तथा 50
में शून्य के लिए जो प्रतीक प्रयोग में लाया गया है वो निश्चित रूप से वर्तमान चिन्ह से मेल खाती है.
शून्य
की यात्रा भारत से होते हुए चीन, अरब होते हुए इटली पहुंचा जहाँ फिबोनिकी ने
1202 में लिखी अपनी पुस्तक – अंको की कहानी से पुरे विश्व को भारतीय दस चिन्हों से
परिचय कराया
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