Tuesday, July 15, 2025

शून्य का सुहाना सफर

 

क्या आप जानते हैं

भारत की गणित संसार को दी जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण खोज कुछ नही कहे जाने वाले शून्य की है. इस मामूली सा प्रतीत होने वाला अंक आज बड़े से बड़े अंको को स्थानीय मान के हिसाब से लिखने में कारगर है. शून्य क्या है और इसकी खोज कैसे हुई ये ठीक –ठीक कहना तो संभव नही है परन्तु यह एक विशुद्ध भारतीय खोज है जिसने विश्व को गिनना सिखाया. चाहे इतालवी में नलिटा कहें, स्वीडेन की भाषा में नोल, स्पेनिश में सेरो, डच में नल, या फ़िनलैंड की भाषा में नोल्ला या अरबी में सिफर  मतलब एक ही है संस्कृत भाषा ने निकला शून्यम से बना शून्य.

आज भी अधिकांशतः लोग शून्य के खोजकर्ता के रूप में आर्यभट को जानते हैं पर मजेदार बात ये है  की स्वयम आर्यभट को भी इसका भान नही रहा होगा की उन्हें लोग उनकी खोज से ज्यादा उस खोज के लिए याद करेंगे जो उन्होंने की ही नही. आज कई पुस्तकों और सोशल मीडिया में भ्रमित करने वाले ऐसे लेख मौजूद है जो कही सुनी बात पर विश्वास करते हुए आर्यभट को खोजकर्ता के रूप में सिद्ध करते हैं.

गणित में सबसे ज्यादा योगदान यूनानियों और रोमन का रहा , परन्तु इनमे से किसी भी प्रणाली में शून्य की संकल्पना नही की गयी और बिना शून्य के बड़ी संख्या लिखने में तो वो सक्षम थे पर स्थानीय मान के अभाव में हर कोई उसका अलग अर्थ निकाल सकता था. भारत में यूँ तो आचार्य पिंगल ने अपनी छंदशास्त्र में शून्य को परिभाषित करने का प्रयास किया है और इसे पहली खोज के रूप में देखने में कोई गुरेज नही है. लगभग 200 ईशापूर्व लिखी इस पुस्तक में उन्होंने शून्य को यूँ परिभाषित किया –

गायत्रे षड़संख्यामर्धेऽपनीते द्वयड.के अवशिष्ट स्रयस्तेषु ।

रूपमपनीय द्वयड.काधः शुन्यं स्थाप्यम् ।।

अर्थात एक गायत्री छंद  में 6 शब्द होते हैं इनके आधे (3) में से 1 घटा परिणाम को पुनः आधा कर इसमें एक घटाने से शून्य की प्राप्ति होती है.

0 = ½ {1/2 of 6 – 1} - 1

शून्य की परिकल्पना तो इससे भी पुरानी है. ऋग्वेद में ऐसे व्यक्ति जो मौजूद या ना दिखने वाली चीजों को खोजने की चाह रखता हो को शून्यैषी कहा जाता था. शून्यैषी निर्ऋते याजगन्धोत्तिष्ठाराते प्रपत मेह रंस्था ।। अथर्ववेद 14.2.19 ।।

शून्य के बारे में पाणिनि ने अपने अष्टअध्यायी में भी बताया है - अदर्शनं लोपः । (1.1.60)

यदि वक्षाली पोथी की बात की जाये तो शारदा लिपि में लिखी इस पुस्तक में शून्य संख्या को लिखने के लिए एक मोटे बिंदु का उल्लेख भी मिलता है परन्तु ये ठीक ठीक अनुमान लगा पाना की लगभग 300 ईशापूर्व में लिखी इस पुस्तक में शून्य किसी स्थानीय मान के साथ लिखा गया होगा कहना कठिन है.

Image result for zero in bakhshali manuscript

मोटे बिंदु में शून्य दिखाता बक्षाली पोथी

पर यह बात सरासर गलत है कि आर्यभट ने शून्य की खोज की. उनकी पुस्तक आर्यभटीय में भी इस बात का कोई जिक्र नही है. हाँ लगभग 650 ईस्वी में भारतियों ने शून्य का उपयोग एक अंक के रूप में करना शुरू किया. ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धांत में इसका जिक्र किया है और शून्य पर आधारित कई नियमों का भी उल्लेख किया है जैसे शून्य में किसी संख्या को जोड़ने या किसी संख्या से शून्य हटाने पर कोई परिवर्तन नही होता है. किसी संख्या को शून्य से गुणा करने पर परिणाम शून्य होता है. परन्तु ब्रह्मगुप्त से पहले किसी ने इसका कोई उल्लेख नही किया है. ग्वालियर में 876 इसवी में मिले शिलालेख में 270 लिखा जाना इस समय तक शून्य के भारत में पूर्णरूप में विकसित अंक प्रणाली का उल्लेख करता है. 12 वी शदी में फिबोनाची द्वारा लिखी पुस्तक – अंको की कहानी ने पुरे विश्व को भारतीय अंकप्रणाली से अवगत कराया.

राजा जयवर्धन के द्वारा बनाये चतुर्भुज मन्दिर का शिलालेख जो आजकल जीरो मदिर के नाम से जाना जाता है .

डॉ राजेश कुमार ठाकुर

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