क्या आप जानते हैं?
भिन्न का अर्थ तो आपको पता ही है. किसी दी गयी संख्या या
वस्तु के कुछेक भाग को निरुपित करने के लिए हम भिन्न का इस्तेमाल करते हैं. मसलन
एक रोटी के चार टुकड़े करने पर प्रत्येक टुकड़े उस पूर्ण का एक चौथाई हुआ. संभव है
आपके मन में सवाल हो रहा हो की कोई टुकड़ा वजन, मात्रा में उन्नीस-
बीस हुआ तो क्या होगा? सवाल जायज है पर यहाँ जो परिकल्पना की जा रही है उसमें हर
भाग में समानता की बात किये बिना भिन्न की बात नहीं की जा सकती है. प्राचीन समय
में भिन्न को किसी संख्या का व्युत्क्रम के रूप में दिखाने की परम्परा मिस्र के
प्राचीन ग्रन्थ – अहमस पेपिरस (1550 ईशापूर्व) और अखमिम लकड़ी के पट्टे (1950
ईशापूर्व) में मिलता है. अहमस पेपिरस में इकाई भिन्न में संख्या को लिखने की बड़ी
रोचक जानकारी मिलती है. होरस आँख भिन्न में भी इकाई भिन्न में लिखने की जानकारी
दिखती है.
राजा होरस के आँख में लड़ाई के दौरान एक तीर लग जाने से उनके
आँखों के 6 टुकड़े हो गये जिसे चित्र में ईकाई भिन्न 1/2, 1/4, 1/8, 1/16, 1/32, तथा 1/64के रूप में दर्शाया गया है.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार आँखों के 6 हिस्से मनुष्य के 6 ज्ञानेन्द्रियाँ
के रूप में दिखाए गयें हैं. ½ गंध, ¼ दृष्टि, 1/8 विचार,
1/16 श्रव्य, 1/32 स्वाद और 1/64 स्पर्श को दर्शाने के लिए किया गया है.
अब भिन्न और उसके इतिहास को यहीं छोड़ हम भिन्न की नई प्रजाति या रूप – सतत भिन्न
जिसे लंगड़ा भिन्न भी कहते हैं उसकी बात करें. .
सतत भिन्न का एक उदाहरण है. इसे नीचे से ऊपर की ओर जाते
हुए हल किया जाता है. पर मजेदार बात ये है की इसकी शुरुआत संभवतः युक्लिड के
विभाजन प्रमेय से शुरू हुई . युक्लिड के विभाजन प्रमेय के द्वारा आपने महत्तम
समापवर्तक निकालने की विधि तो याद ही होगी. यदि संख्या a को b से विभाजित
किया जाये और भागफल q तथा शेषफल r हो
तो a = bq + r
जहाँ 0 < = r < b होगा. अब
संख्या 43 और 19 का म.स. निकालते हैं
43 = 2 × 19 + 5 19 = 3 × 5 + 4 5 = 1 × 4 + 1 4 = 4 × 1 + 0
अर्थात
43 और 19 का म.स. 1 है. यहाँ भागफल को लाल रंग से दिखाया गया है. अब इन्हें सतत
भिन्न के रूप में लिखने का प्रयास करें
भारत में आर्यभट ने सबसे पहले Nx2+ K2 = y2 जैसे समीकरण को हल करने के लिए सतत भिन्न का प्रयोग किया. आर्यभटीय के अलावा गणित कौमुदी में नारायण पंडित ने सतत भिन्न को हल करने की विधि का उल्लेख किया है. साथ ही अरब के विद्वानों ने इसपर थोड़ा काम किया है. इटली के दो गणितज्ञ राफेल बम्बेली ने 13 के वर्गमूल को दर्शाने के लिए सतत भिन्न का प्रयोग अपनी पुस्तक अलजेब्रा ओपेरा में किया है. जॉन वालिस ने अपनी पुस्तक अरिथमेटिका इन्फिनिटोरियम जो उन्होंने 1655 में लिखी में सतत भिन्न से सम्बंधित नियम का प्रतिपादन किया और साथ ही पाई का मान निकालने के लिए एक तादात्म्य का प्रयोग किया -
जिसे
रॉयल सोसाइटी के प्रथम अध्यक्ष लार्ड ब्रौंच्कर ने सतत भिन्न में बदलने का प्रयास
कुछ इस तरह से किया
इस
प्रक्रिया को गॉस,
यूलर ने आगे बढाया और नये नये परिणाम लाने में सफलता पायी. भारतीय गणितज्ञ
श्रीनिवास रामानुजन ने एक नई ऊंचाई देने का प्रयास किया और 1972 में बिल गोसपर ने
सबसे पहली बार सतत भिन्न सम्बंधित एक विस्तृत नियमावली देने में सफलता प्राप्त की
.
डॉ
राजेश कुमार ठाकुर
No comments:
Post a Comment