क्या
आप जानते हैं ?
दाशमिक प्रणाली जिसका प्रयोग आज पूरी दुनिया में प्रचलित है
भारतीयों की देन है इस बात से पूरा विश्व जानता है. आज अगर जीरो नही होता तो
संख्या लिखने की सहजता और संख्या में प्रयुक्त हर अंक के स्थानीय मान को जान पाना असंभव था. प्राचीन समय
में 23, 203, 230 में विभेद करना एक मुश्किल का काम था जिसे शून्य ने हल कर दिया
पर इस शून्य ने कुछेक भ्रम भी पैदा कर दिया. अगर हम शून्य के संक्रिया की बात करें
तो ब्रह्मगुप्त के द्वारा ब्रह्मस्फुट सिद्धांत में शून्य पर आधारित संक्रिया की बात
कर सकते हैं जिसमे किसी संख्या में शून्य के योग, घटा,
गुणन और भाग सम्बन्धी बातें की गयी थी पर इसमें भी एक गलती रह गयी की किसी संख्या
में शून्य से भाग देना संभव है या नहीं और कोई ठीक उत्तर नही निकाल पाने की स्थिति
में इसे अपरिभाषित घोषित कर दिया गया. अब प्रश्न आता है की जब 0/0 = अपरिभाषित ,
1/0 = अपरिभाषित तो 0 पर घात 0 होने की स्थिति में उत्तर क्या होगा . यह एक विवाद
का विषय रहा. अधिकांश विद्वान गणित में 00 = 1 मान गये पर नया बहस तब
फिर से शुरू हो गया जब 1821 इसवी में कौशि ने शून्य को शून्य से भाग देने को
अपरिभाषित किस श्रेणी में रख दिया परन्तु 1830 में गुग्लिल्मो लिबरी कारुची दल्ला
सोमाजा ने पुनः इसे 00 = 1 कहा . यदि घातांक की बात करें तो ax को तभी सही कहा जा सकता है जब a ≠
0 हो इस हिसाब से 00 को हम अपरिभाषित ही कह सकते हैं पर यदि घातांक के
दुसरे नियम a0
= 1 ले तो 00 = 1 भी सही लगता है . अब इसे द्विपद परिमेय से हल करने का
प्रयास करें तो इसे (1 – 1)n = 0n
के रूप में विस्तारित करने पर हमें उत्तर 1 प्राप्त होगा. खैर ये विवाद अभी सुलझा
नही है इसलिए आप भी गणित की ऐसी विसंगतियों का आनंद लीजिये.
अभाज्य संख्या से तो आप परिचित ही हैं . ऐसी संख्या जिसके
गुणनखंड स्वयम संख्या और 1 के अलावा कोई अन्य नही हो सकता. ये संख्या हैं – 2, 3, 5, 7, 11
--- अभाज्य संख्या पर ब्रिटिश गणितज्ञ जॉन विलियम ने एक नये नियम को प्रतिपादित
किया जो किसी अभाज्य संख्या (p –
1)! + 1 को p से पूर्ण विभाजित करने के सिद्धांत पर आधारित है.
( 2- 1 )! + 1 संख्या 2 से पूर्ण विभाजित होगी जो बिलकुल सही
है इसी प्रकार ( - . इस हिसाब से (3 – 1)! + 1 भी संख्या 3 से विभाजित है पर (9 –
1) ! + 1 = 40321 संख्या 9 से विभाजित नहीं होगी अतः विभाज्यता की जांच के लिए इस
नियम का प्रयोग वर्जित है.
पियरे डी फरमा का नाम तो सब जानते हैं. फरमा अपने अंतिम
प्रमेय के लिए विख्यात हैं जिसमे पाइथागोरस की तर्ज पर n > 2 के लिए निकाल पाना संभव नही
है. यह समस्या 350 वर्षो तक गणित में एक
पहेली रही.
फरमा ने एक प्रमेय की खोज की जिसके अनुसार किसी संख्या को दो
वर्गों के रूप में लिखा जा सकता है अगर उस संख्या के अभाज्य गुणनखंड में 4k +
3 के रूप में लिखी जाने वाली अभाज्य संख्या को सम संख्या के गुणज के रूप में लिखा
जा सकता हो . जैसे 245 = 5 x 7 x 7 = 14^2 + 7 ^2 = 196 + 49
यहाँ 245 के गुणनखंड में 7 सम बार लिखी गयी है और 7 = 4 x 1 + 3 को 4k +
3 के रूप में लिखा जा सकता है परन्तु इसके पलट 42 = 2 x 3 x 7
को दो वर्गों के रूप में लिखना संभव नही है क्योंकि यहाँ 4k +
3 के रूप में लिखी जा सकने वाली संख्या 7 के एक ही बार आवृति है.
डॉ राजेश कुमार ठाकुर
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