क्या
आप जानते हैं ?
मेहनत एक आम आदमी को
खास बना देती है और किस्मत किसी खास को आम. भारत के सन्दर्भ में ये बात कुछ ज्यादा
ही सटीक बैठती है क्योंकि यहाँ प्रतिभा की कमी नही पर प्रतिभा को पहचाने के लिए
हमने अपने आँखों पर मोटा रंगीन चश्मा चढ़ा रखा है. अपनी हठधर्मिता के कारण हमने अपनी
प्रतिभा को छिपाकर रखने में या फिर प्रतिभा को गुमनाम जिन्दगी जीने पर मजबूर कर
दिया. आज हम ऐसे ही दो प्रसंग पर बात करेंगे.
भोजपुर के पुलिस
कांस्टेबल का एक बेटा अपनी प्रतिभा से उस समय के सबसे प्रतिष्टित विद्यालय नेतरहाट
पहुंचता है और मेधा का ऐसा धनी की पटना साइंस कॉलेज के प्रधानाध्यापक डॉ नागेन्द्र
राव ने उन्हें 1 साल में बीएससी और एमएससी की डिग्री प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय
के नियमों में फेर बदल कर दिया. प्रोफेसर केलि उनकी प्रतिभा से इस कदर प्रभावित
हुए की उन्हें वेर्क्ले विश्वविद्यालय ले
गये जहाँ से उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की , नासा में कार्य किया और
देशप्रेम में जब सब प्रसिद्धी ठुकराकर वापस भारत आये तो उन्हें IIT,
ISI जैसे प्रतिष्ठान में पढ़ाने का
मौका मिला. पर किस्मत यहाँ पलट गयी. विश्वविद्यालय में कुछ प्राध्यापक ने इनके
रिसर्च पेपर को अपने नाम से छपवा दिया , पत्नी ने तलाक दे दिया और एक विख्यात
गणितज्ञ पागलपन का शिकार हो गया. सरकार ने कोई सुध नही ली , बर्षो भिखारी की
जिन्दगी जीने को मजबूर हो गये और अंत समय में पटना मेडिकल कॉलेज ने भी इनकी कोई
परवाह नही की. यहाँ तक की मरने के बाद भी लाश के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था ना हो
सकी . खैर सरकार ने मृत्युपरांत पद्मश्री दे दिया. यह घटना हमे हमारी सामाजिक
दायित्व को समझने के लिए प्रेरित करती है. एक वैज्ञानिक और गणितज्ञ भी उतना ही
महत्वपूर्ण है जितना कोई खास अतः हमें अपने रत्नों को सहेजकर रखने की आवश्यकता है.
पुरे विश्व को कैलकुलस
अथवा कलन के जनक के रूप में दो नाम पढाया जाता है – एक अंग्रेज गणितज्ञ न्यूटन और
दुसरे जमर्न गणितज्ञ लिबनिज. पर जब इसकी खोज भारतियों ने दसवीं शदी के पूर्व कर दी
तो इसका श्रेय किसी भारतीय को क्यों नही मिला. कहते हैं मार्कोपोलो जब सन 1295 में
भारत व्यापार के लिए आया तो वापसी में अपने साथ कुछेक पुस्तकें भी लेकर गया और
रोमन सम्राट हेनरी सप्तम को अपने साथ लायी कैलकुलस की एक पुस्तक भेंट की जिसका पता
वेनिस के संग्रहालय में रखी चित्र के उद्धरण से मिलता है. भारत में मंजुला ने 9वी
सदी के उतरार्ध और भास्कराचार्य ने 11 वी शदी के आरम्भ में अपनी पुस्तक सिद्धांत
शिरोमणि में इसका उल्लेख किया और बाद में केरल के गणितज्ञों ने इस कला को आगे
बढाया पर क्या कमी रह गयी की भारतियों का यह ज्ञान विकसित नही हो सका.
फिबोनिकी की पुस्तक का एक पृष्ठ
साथ ही इटली के एक महान गणितज्ञ फिबोनाची की पुस्तक के
मुख्य पृष्ठ पर जो चित्र उधृत है उसमे एक विदेशी एक ब्राह्मण गुरु से ज्ञान लेते
हुए नजर आता है और इस हिसाब से फिबोनाची के गुरु एक भारतीय थे. पर जब आचार्य
हेमचन्द्र और विरहंक ने आठवी शदी में आज कहे जाने वाले फिबोनिकी संख्या की खोज कर
ली तो इसका श्रेय इन्हें क्यों नही. जब टेलर सीरीज की खोज माधव ने कर दी तो फिर
इन्हें कोई सम्मान क्यों नही. शायद भारतियों ने अपने ज्ञान का प्रचार उस हद तक
करने के लिए कोई प्रयास नही किया या इसे कलमबद्ध नही किया जिससे उन्हें श्रेय नही
मिल सका.
डॉ राजेश कुमार ठाकुर
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