क्या आप जानते हैं ?
1.
भारतीय गणितज्ञों ने त्रिकोणमिति की खोज की इसका प्रमाण सूर्य
सिद्धांत नामक पुस्तक जो लगभग 400 ई. में लिखी गयी में मिलता है जिसमे sin, cos और tan , sec जैसी त्रिकोणमिति अनुपात का प्रयोग दिखता है और साथ ही भारतीय
गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट ने भी त्रिकोणमिति को आगे बढ़ाने में काफी काम किया.
यही नही आर्यभट ने 0 से 90 अंश के sine की सारिणी बनाने में सफलता प्राप्त की जिसमे कोण का अंतर 3.75
अंश का है बनाया जो दशमलव के बाद चार अंकों तक शुद्ध था . भारतीय खगोलविदों ने
पृथ्वी और सूर्य, तथा पृथ्वी और चंद्रमा
के बीच की दुरी की गणना के लिए भी त्रिकोणमिति का प्रयोग किया है. उन्होंने महसूस किया कि, जब
चंद्रमा सूर्य से आधा और सीधे सूर्य के विपरीत है, तब
सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी एक समकोण त्रिभुज बनाते हैं, और
इनमे सूर्य
और पृथ्वी के बीच चाँद के सापेक्ष कोण का माप 1⁄7 ° है आर तक
मापने में सक्षम थे। उनकी साइन टेबल ने 400: 1 जैसे त्रिकोण के पक्षों के लिए एक
अनुपात दिया, जो दर्शाता है कि सूर्य
चंद्रमा की तुलना में पृथ्वी से 400 गुना दूर है।
2.
भारतीय ज्यामिति को नई ऊंचाई देने का काम शुल्ब सूत्र ने किया.
अबतक 8शुल्बसूत्र के बारे में जानकारी है जिनके नाम बोधायन, आपस्तंब, सत्याषाढ, वाधुल,
मानव, मैत्रीयणी , वराह और
कात्यायन शुल्बसुत्र हैं. इस पुस्तक में मंडप, वेदि, अग्निकुंड, अग्निचिति इत्यादि के निर्माण की विधि का उल्लेख है और इसके
लिए प्रयुक्त ज्यामिति का प्रयोग इस पुस्तक की विशेषता है. पाइथागोरस प्रमेय और
वृत्त के परिगत वर्ग और वर्ग के परिगत वृत्त जैसे सिद्धांतो की जानकारी इस पुस्तक
की वैज्ञानिकता दिखाते हैं.
3.
भारतीय गणित में केरल के गणितज्ञों का योगदान यूरोपीय गणितज्ञों
की तुलना में अधिक रहा परन्तु इन्हें जो इतिहास में स्थान मिलना चाहिए वो नही
मिला. माधव ने गणित को एक नया आयाम दिया, यहाँ तक की कैलकुलस की खोज लिबनिज और न्यूटन से पहले किया ,
टेलर से पहले sine सीरीज को खोजा पर
विश्वपटल पर अपनी छाप नही छोड़ पाए. चार्ल्स व्हिश ने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में
1835 में प्रकाशित अपने लेख में यह दावा जरुर किया की केरल के गणितज्ञों ने
यूरोपीय गणितज्ञों से लगभग 300 वर्ष पूर्व ही कैलकुलस की खोज कर दी थी परन्तु 1940
में लगभग 100 वर्षो के बाद उनकी खोज को मान्यता मिली जब पश्चिमी गणितज्ञों ने
चार्ल्स के दावे को सही पाया.
भारतियों ने
संख्या लिखने के लिए कटपयादि पद्धति की खोज की जिसका प्रथम विवरण शंकर नारायण
द्वारा रचित ग्रन्थ लघु भास्करीय विवरण में मिलता है जो 869 ई. में लिखी गयी
परन्तु कुछ लोग इसका श्रेय वरुची को देते है जिन्होंने चौथी शदी में अपनी पुस्तक
चन्द्र वाक्यानि में इसका जिक्र किया था. इस पद्धति में कवर्ग, टवर्ग,
पवर्ग के अक्षरों को एक अंक का मान दिया गया था और न ,ञ और अ के लिए शून्य
का प्रावधान रखा गया. दक्षिणी भारत से आरम्भ इस संख्या पद्धति ने पुरे भारत में
बड़ी से बड़ी संख्या को लिखने में मदद की और वैदिक गणित के प्रमुख भारतीय कृष्ण
तीर्थ जी महाराज ने अपनी पुस्तक में पाई के 32 अंक तक सही मान एक श्लोक में दिखाने
का जो प्रयास किया है वो इसी पद्धति की उपज है.
गोपीभाग्यमधुव्रात-शृङ्गिशोदधिसन्धिग॥
खलजीवितखाताव
गलहालारसंधर॥
इस श्लोक से पाई का मान 3.1415926535897932384626433832792 निकाला गया.
डॉ राजेश कुमार ठाकुर
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